Friday, April 23, 2010

जगत में छ: श्रेणी के लोग होते हैं, प्रथम श्रेणी उनकी है, अर्थात सबसे निकृष्ट कहा जा सकता है, कि वह जो दूसरों के केवल दोष ही देखें।



श्रीमद्भागवतम स्कन्ध ४ श्लोक १२

दोषान परेशान हि गुणेषु साधवो
गृहन्नति केचित न भवाद्रिशु द्विज
गुणांस च फ़लगुन बहुलि परिष्णवो
महत्तमास तेषु अविदत्त भवान अगम ।

दोषान – दोष, परेशां – दूसरों के, हि – लिये, गुणेषु – गुण के अंदर, साधवा: - साधु, गृहन्नति – ढूँढ़ना, केचित – कोई, न – नहीं, भवाद्रिश: - जैसे तुम, द्विज – दो बार जन्म लेने वाला, गुणांस – गुण, च – और, फ़लगुन – छोटा, बहुलि करिष्णवो – बहुत बड़ा, महत्तमास – महान लोग, तेषु – उनके साथ, अविदत्त – ढूँढना, भवान – तुम, अगम - गलती ।

यह बहुत महत्वपूर्ण श्लोक है, जिसमें सती अपने पिता दक्ष की कठोर शब्दों से निंदा कर रही है, और कह रही है कि किस प्रकार दक्ष शिवजी में दोषदर्शन कर रहे हैं और यह उचित नहीं है।

इस जगत में छ: श्रेणी के लोग होते हैं, और इन छ: श्रेणी के लोगों में दर्शन या इस जगत या जगत के लोगों को देखने का रवैया भिन्न होता है।
प्रथम श्रेणी उनकी है, प्रथम अर्थात सबसे निकृष्ट कहा जा सकता है। कि वह जो दूसरों के केवल दोष ही देखे।
दूसरों के अंदर केवल दोषदर्शन करना। तो वर्णन आता है कि महाभारत में दुर्योधन इसके सुन्दर उदाहरण हैं। क्योंकि दुर्योधन को दूसरों में केवल दोष ही दिखते थे, स्वयं में सदगुण और द्रोणाचार्य ने जब दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनों को भेजा कि राज्य में देखकर आओ कि कौन लोग महान हैं और कौन लोग निकृष्ट हैं, तो दुर्योधन ने विचार किया कि पहले द्रोणाचार्य को इस तरह से भेजने की आवश्यकता ही क्या है, देखकर ही उनको समझना चाहिये कि मैं कौन हूँ, लेकिन फ़िर भी क्योंकि कह रहे हैं, तो फ़िर कसर पूरी करेंगे। अर्थात जाने से पूर्व ही उन्होंने विचार किया कि कोई आवश्यकता नहीं जाने की मुझसे श्रेष्ठ दूसरा कोई है ही नहीं। और फ़िर चारों दिशाओं में भ्रमण करने के पश्चात लौटकर आये और द्रोणाचार्य जी को कहा कि पूरे राज्य में सभी मुझे दोष से ही पूर्ण दिखे। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखा जो दोष से मुक्त था, मुझे छोड़कर । तो ये दुर्योधन का दृष्टिकोण इस तरह से था । तो इसे कहते हैं दोषदर्शन की दृष्टि ।

जैसे नीति शास्त्र में वर्णन आता है – महात्मा और दुरात्मा में अंतर क्या है, दुरात्मा उसके मन वचन और कर्म में भिन्नता होती है। जो व्यक्ति मन में कुछ सोचता है, वाणी से कुछ ओर कहता है और अपनी काया से कुछ ओर करता है, वो दुरात्मा है। और महात्मा अर्थात वो जो मन में, वचन में और काया से पूरी तरह समान भाव से कार्य करता है । तो वास्तव में इस भौतिक जगत में किसी भी व्यक्ति को प्राप्त करना बहुत कठिन है, जो दोषों से मुक्त है।

और ये विषय विशेष रुप से भक्तों के लिये बहुत आवश्यक है क्योंकि हम लोग भक्ति करते हैं, शुद्ध भक्ति को प्राप्त करने के लिये। श्रेष्ठतम स्तर को और शुद्धता को प्राप्त करने का हमारा प्रयास है, और यह सुना है कि कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, दोषों से मुक्त हैं, और ये भी सुना है कि कृष्ण को प्राप्त करने के लिये भक्तों की कृपा की आवश्यकता पड़ती है। और इसलिये हम सभी भक्तों की सेवा में लगे रहते हैं, भक्तों के संग में भक्ति करते हैं। लेकिन समस्या यह है कि भक्तों के संग में भक्ति करते समय भक्तों के दोषदर्शन होते हैं। आरंभ में जब हम भक्ति में आये तब सारे भक्त महान लगे थे, लेकिन वास्तव में किसी भी संघ में आप जाओ तो सर्वप्रथम केवल सद्गुण दिखते हैं, लेकिन कुछ समय के पश्चात धीरे धीरे दुर्गुण दिखने लगते हैं, यह भद्र जीव की समस्या है । जब व्यक्ति नया नया संघ में आता है तो सबको दंडवत करता रहता है, सबको प्रणाम करता रहता है। उसको लगता है कि सब महान हैं, सब श्रेष्ठ हैं, और ये मन में विचार यदि वो दीर्घकाल तक रख सके तो उसकी श्रेष्ठता है। लेकिन दुर्भाग्यवश मन में यह भावना बनती नहीं, और कुछ समय के बाद मन में यह लगने लगता है कि मैं इस व्यक्ति को बहुत महान समझा था, लेकिन इतना महान नहीं है। जैसा पहले लगा था। देखने में मुझसे ही कुछ गलती हो गई थी। अब धीरे धीरे अज्ञान का पर्दा हट रहा है, अज्ञान का प्रकाश हो रहा है। और मैं समझ रहा हूँ कि इसकी वास्तविक औकात क्या है, पहले इनको दंडवत करता था अब केवल प्रणाम करता हूँ काफ़ी है। तो यह समस्या सबकी है प्रत्येक व्यक्ति की है, इसलिये इसे कहते हैं Seminar on overcoming fault finding.

किसी को भी देखो, कुछ भी देखो तो केवल बुरा ही दिखता है, तो इसका मूल कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने मिथ्या अहंकार के चश्मे से जगत को देखता है, हम सभी को भगवान ने एक दृष्टि प्रदान की है। लेकिन इस दृष्टि के पीछे मिथ्या अहंकार का प्रभाव है So false ego is like spectacle. और ये मिथ्या अहंकार अलग अलग रंग का बना है। किसी का नीले रंग का चश्मा है तो किसी का पीले रंग का, किसी का हरे रंग का, किसी का केसरिया रंग का । तो अलग अलग प्रकार का चशमा पहने हैं सब, और जिस रंग का चश्मा पहनेंगे दुनिया आपको वैसी ही दिखेगी| लोग मूल तत्व को छोड़कर छोटी छोटी बात को लेकर झगड़ा करना शुरु कर देते हैं। तो सिद्धांत को छोड़कर यदि बाकी अन्य बातों के विषय में हम विचार करें तो भक्ति पीछे छूट जायेगी।

एक उदाहरण देखिये २ सेव और ३ सेव कितना होता है ५ सेव, और दूसरा अध्यापक उनको शिक्षा देता है ४ केला और १ केला ५ केला होता है, अभी दोनों गणित सिखा रहे हैं, दोनों में कोई अंतर है, तो एक कहेगा नहीं कोई अंतर नहीं है, दोनों बराबर सिखा रहे हैं, दूसरा कहेगा नहीं बहुत बड़ा अंतर है ये तो सेव है, और ये तो केला है। तो केला और सेव को लेकर झगड़ा शुरु !!! और मूल सिद्धांत जो गणित सीखना है वो रह गया । तो उसी प्रकार भक्ति में भी कई बार मूल सिद्धांत को छोड़कर किस प्रकार से उस गणित को समझाना है इस मसले को लेकर मतभेद उत्पन्न हो जाता है। तो इसीलिये सर्वप्रथम दृष्टि यह है कि दूसरों में दोष देखना ।

यहाँ तक कि लोग भगवान को भी नहीं छोड़ते और वर्णन आता है कि जब भगवान इस जगत पर अवतरित हुए और नाना प्रकार की लीलाएँ उन्होंने की तो भी कई ऐसे लोग मिले जो केवल भगवान की निंदा ही किये, और उसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं "शिशुपाल", शिशुपाल भगवान के भाई थे एक प्रकार से दूर के रिश्ते में । लेकिन शिशुपाल का भगवान कृष्ण के प्रति इतना द्वेष था कि जिस समय शिशुपाल का जन्म हुआ । सामान्य बालक जन्म के पश्चात आ, ऊ इस तरह से रोता है, शिशुपाल जन्म के पश्चात सबसे पहले जो शब्द उनके मुख से निकले कृष्ण के प्रति गाली, इतना द्वेष उनके ह्र्दय में कूट कूट कर भरा हुआ था। और उसके पश्चात द्वेष भी उनका ऐसा था कि जब भी कृष्ण को देखते या कृष्ण के संबंध में कुछ बात कहते कि केवल बुरे शब्द निकलते । लेकिन कृष्ण भी बड़े सहनशील थे और कृष्ण ने विशेष रुप से शिशुपाल को छूट दी थी, कि एक साथ ९९ गाली दे सकता है, सौ के ऊपर गया तो मैं उनको समाप्त कर दूँगा। तो भगवान भी कितने सहनशील हैं हम भी कभी कभी इतनी सहनशीलता नहीं दिखाते । कौन इतना सहनशील है कि तू मुझे ९९ गाली दे सकता है, ९९ गाली तक में सहन करुँगा उसके बाद नहीं, अपना तो २-४ के ऊपर ही फ़्यूज उड़ जाता है । तो सौ की तो दूर की बात है, तो विचार कर सकते हैं कि भगवान इस भौतिक जगत को बनाते हैं, भौतिक जगत को दोषों से पूर्ण बनाते हैं, लेकिन स्वयं भी जब लीला करते हैं तो ऐसा नहीं कि अलग कमरे में रहते हैं । जहाँ उन पर इस जगत के दोषों का प्रभाव नहीं पड़ता । भगवान जब जगत का निर्माण करते हैं और स्वयं अवतरित होते हैं, लीला करने आते हैं तो स्वयं भी जगत के इन दोषों में भागीदार बनते हैं। अन्यथा बैकुण्ठलोक में गोलोक में उनको कोई गाली नहीं देता। संभव ही नही, कोई ऐसा विचार करेगा तो तुरंत ही भौतिक जगत में आ जायेगा। लेकिन भगवान हम सबको प्रेरणा देने के लिये कहते हैं कि मैं भी यहाँ जगत में आकर दो चार बुरे शब्द सुनकर जाता हूँ, तो आप लोगों को क्या समस्या है । जगत इस तरह से निर्माण किया गया है कि यहाँ पर चाहे कुछ भी करो चाहे आप पूर्ण प्रुरुषोत्तम आनंदगणचिद्गन षड़्गुण संपन्न षड़्श्वेरेशाली भगवान भी क्यों न हों, तो दो चार बुरे शब्द सुनने ही पड़ते हैं । कुछ लोग ऐसे मिलेंगे ही जिनके साथ आपका कभी बनेगा ही नहीं। केवल दोष देखना यह सबसे निकृष्ट स्तर है।


इसे मैं आगे की पाँच कड़ियों में प्रकाशित करुँगा और आप यहाँ से सीधे इन सद्वचनों को सुन भी सकते हैं, ये केवल मैं टाईप कर रहा हूँ, मेरा प्रयास है इस ब्लॉग से ज्यादा से ज्यादा ज्ञान हिन्दी में अंतर्जाल पर दे सकूँ, मेरा एक छोटा सा प्रयास मात्र है।