Monday, May 10, 2010

जगत में छ: श्रेणी के लोग होते है, द्वितिय श्रेणी उनकी है, अच्छा और बुरा दोनों देखना पर थोड़ा सा बुरा दिखाई दे तो उसे बहुत बड़ा चढ़ा देना।

प्रथम श्रेणी जो दूसरों में केवल दोष देखते हैं, पढ़ने के लिये चटका लगाईये।

    बुरा भी देखना अच्छा भी देखना, लेकिन जो बुरा मिल गया तो बिल्कुल इस तरह झपट पड़ना कि अब मिल गया मिल गया। जो ढूँढ़ रहा था वो मिल गया, और उसको झपट लेना और फ़िर उसको बहुत बड़ा देना, विस्तारित कर देना।

    दक्ष के यज्ञ में देखा जाता है कि दक्ष शिवजी के प्रति इतने क्रोधित हो गये कि शिवजी उठ खड़े होकर उनको सम्मानित नहीं किये। वास्तव में शिवजी की ओर से कोई गलती नहीं थी, क्योंकि वो परमात्मा के ऊपर सत्वं विशुद्धं वसुदैव शब्दितम सैयते उनाम उपावृत: निरंतर वो परमात्मा के संपर्क में रहते हैं । जब भी हम किसी को प्रणाम करते हैं तो प्रणाम किसको कर रहे हैं, उनके ह्र्दय के अंदर स्थित परमात्मा को, तो शिवजी निरंतर परमात्मा के संपर्क में रहते हैं तो उनको प्रणाम ही कर रहे थे, लेकिन दक्ष अपनी दृष्टि से इस बात को समझ नहीं पाये। ओर उस दोष को लेकर दक्ष ने शिवजी की ऐसी निंदा आरंभ कर दी कि बस पूछो मत। ओर निंदा करने से पूर्व दक्ष ने अपनी निंदा का भूमिका भी बताई कि अभी मैं जो कुछ शब्द कहने जा रहा हूँ, ये न विचार करें कि मैं द्वेष से प्रेरित कह रहा हूँ, केवल मेरे कुछ विश्लेषण हैं जो मैं बता रहा हूँ, अर्थात न केवल द्वैष था लेकिन साथ साथ वो उसका परिचय भी दे रहे थे, कि जो मैं कह रहा हूँ वह द्वेष से प्रेरित नहीं है, और फ़िर इस तरह से निंदा की लेकिन शिवजी की कोई प्रतिक्रिया नहीं रही। तो वास्तव में ये ऐसे दोष दर्शन की दृष्टि है कि थोड़ा सा कुछ दोष दिख गया तो उस दोष को पकड़कर विस्तारित कर दो, और ना ना प्रकार के अनाप शनाप शब्द दक्ष शिवजी के विषय में वर्णन करते हैं ।

    और दूसरे उदाहरण आता हैं दुर्वासा जी के आने में कुछ विलंब हो गया उनके लौटने में तो अम्बरीश महाराज ने थोड़ा सा जल प्राप्त कर लिया और अपने उस व्रत को भंग करने से दुर्वासा मुनि इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने एक महान राक्षस तैयार किया अपनी योगशक्ति से । लेकिन वर्णन आता है कि अम्बरीश महाराज की इतनी शक्ति थी दुर्वासा मुनि की भले ही योग की शक्ति थी परंतु अम्बरीश महाराज की भक्ति की शक्ति थी। और भले ही विषधर भुजंग बड़ा ही शक्तिशाली हो पर अपने विकराल विष के प्रभाव से ना ना प्रकार के लोगों को नष्ट कर सकता है। लेकिन वही विकराल भयावह विषधर भुजंग यदि किसी दावाग्नि में प्रवेश करे, तो दावाग्नि के भीतर उस भुजंग का कुछ नहीं हो सकता क्योंकि दावाग्नि की शक्ति इतनी है कि उस दावग्नि मॆं वह भुजंग या वह सर्प केवल झुलस कर ही नष्ट हो जायेगा। उसी प्रकार दुर्वासा मुनि का क्रोध एक सर्प की तरह था, और सर्प की भांति वे फ़ुफ़कार रहे थे, और अपने द्वेष के विष को अपने चारों तरफ़ फ़ैला रहे थे, लेकिन अम्बरीश महाराज के अंदर भक्ति की भावना एक दावाग्नि के तुल्य थी, और ऐसे दावाग्नि के टक्कर से वह तुरंत नष्ट होकर झुलस गये। इसलिये दुर्वासा मुनि अम्बरीश महाराज का कुछ बिगाड़ नहीं पाये।

    तो कई ऐसे लोग होते हैं, हमारे अंदर भी ये प्रवृत्ति होती है कि किसी के अंदर द्वेष की भावना होती है और थोड़े उनके अंदर कुछ दुर्गुण देख लिया तो उसको पकड़कर हम चारों तरफ़ उसके विषय में हम विज्ञापन करने लगते हैं, तो वास्तव में उस व्यक्ति के अंदर दोष तो है, लेकिन उससे अधिक हमारे ह्र्दय के अंदर द्वेष है, कि उस दोष को देखकर हम प्रसन्न होते हैं और उसका विज्ञापन करते हैं।

    यह प्रकृति का नियम है जब हम दोष दर्शन करते हैं और दूसरे का दोष देखते हैं और उसका विज्ञापन करते हैं, तो समय की बात है कि वही दोष हमारे ह्रदय में भी प्रवेश करते हैं, या हो सकता है कि वह दोष हमारे अंदर ही हो इसलिये वह दोष हमें दिखते हैं, और उसका प्रभाव हम पर होने लगता है। इसलिये वास्तव में यह बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है, और हमारी भक्ति के जीवन के लिये बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है।