Tuesday, November 15, 2011

कृष्ण जी की सेवा में आधुनिक तकनीक (Modern Technology in the service of Lord Krishna)

सब कुछ संभव है भगवान की सृष्टि में, मॉर्डन टेक्नोलोजी भी भगवान की सृष्टि है, और भगवान की सृष्टि है भौतिक प्रकृति हवा, जल, पहाड़, भूमि हम सब भगवान की सृष्टि है। लेकिन वास्तव में यह टेक्नोलोजी भी भगवान की सृष्टि है, क्योंकि भगवान की प्रदत्त बुद्धि के द्वारा ये सब सृष्ट होते हैं। बुद्धि बुद्धिमता अस्मि : भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं वो बुद्धिमान व्यक्ति की बुद्धि में हूँ और वो विचार मेरे से आते हैं, तो ऐसा नहीं है कि हम भगवान से स्वतंत्र हैं, और हम सब कुछ अपने प्रयास से कर सकते हैं। नहीं ! सबकुछ भगवान के हाथ में है, और इनसे ही यथीष्ट उपर्युक्त बुद्धि आती है जिससे कि हम यह सब चीजों को तैयार कर सकें।

यह सब चीज भगवान का उपहार है, और इन सबसे भगवान की महिमा का प्रचार करना चाहिये। कृष्ण भक्ति प्रचार - दो प्रकार के साधु हैं एक है भजनानंद जो खुद के भजन में संतुष्ट होते हैं। और दूसरे प्रकार का साधु है प्रचारक वो गोष्ठियाँनन्दीपक मतलब गोष्ठी मतलब जन समागम में रहते हैं प्रचार करने के लिये । सब लोगों को कहते हैं - “हे भाईयों, हे बहनों देखो विचार करो, आपके जीवन का क्या उद्देश्य है ?” उद्देश्य होना चाहिये कृष्ण भक्ति का, तो क्यों हम जीवन काम क्रोध मद मोह लोभ का विस्तार करने के लिये इस्तेमाल करते हैं , वरना ये सब कृष्ण सेवा में लगाना चाहिये। हर व्यक्ति का हर प्रयास, हर व्यक्ति का हर वचन, हर व्यक्ति का चिंतन खाली कृष्ण केन्द्रिक हो। पूरे समाज में सभी व्यक्तियों का एक ही चिंतन एक ही ध्यान होगा। कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण । और सब सहयोगिता में कृष्ण सेवा करेंगे, जो संभव होगा कृष्ण भक्ति प्रचार से ।

चैतन्य महाप्रभू बोले कि मेरा नाम कृष्ण हर गाँव हर शहर में हर देश में और हर दिल में प्रसारित और प्रचारित होगा । क्योंकि सबकुछ जो जगत में है वो जगन्नाथ की संपत्ति है, और जगन्नाथ की सेवा में सबकुछ लगाना चाहिये । हम मंदिर में आकर १०० रुपया हुंडी में डालते हैं और सोचते हैं कि मैंने १०० रूपया दिया, ऐसा नहीं कि मैंने जो १०० रुपया दिया वो भी भगवान की संपत्ति है और जेब में जो बाकी का रूपया है वह भी भगवान की संपत्ति है, तो एक दृष्टि में अगर हम सबकुछ नहीं देते हैं तो हम चोर हैं, क्योंकि सबकुछ भगवान को देना चाहिये।

उपनिषद की एक उक्ति के अनुसार भगवान हमको कुछ देते हैं सब कुछ जिसके लिये हम सोचते हैं कि ये मेरी है मेरी संपत्ति है, मेरा घर है, वास्तव में सबकुछ भगवान का है। भगवान हमको जो कुछ देते हैं, वह सब शरीर का पालन करने के लिये इस्तेमाल करना चाहिये लेकिन खुद के लिये ज्यादा नहीं मांगना चाहिये। जो भी जरूरत है शरीर का पालन करने के लिये थोड़ा सा लेना है बाकी भगवान की सेवा में लगाना चाहिये। तो ऐसे कृष्ण भक्ति की प्रचार में जगत की सभी सुविधा भगवान की सेवा में लगाना चाहिये, सब कुछ भगवान की सेवा में लगाना चाहिये ।

साधु का बेरोजगारी में भी जाना निषेध है, तो वह नियम अच्छा है जिससे फ़िर वह साधु फ़िर भोग विलासी नहीं बनेगा । जिससे उस साधु की विरक्ति और तपस्या होगी । लेकिन एक और प्रकार का साधु है जो कि खुद के कल्याण के लिये ही प्रयास नहीं करते, उनका प्रयास है आम लोगों को साधुजन बनाना । और इसलिये जगत में जो सब कुछ है वो गृहण कर सकते हैं । भगवान का नाम प्रचार करने के लिये, और ऐसी सुविधाओं को हम कहते हैं भगवान की सेवा करने के लिये, अर्थात धन ऐश्वर्य में रहने की भी उनकी इच्छा नहीं होती है। कि ये सब मेरे भोग के लिये है। सब सुविधाओं को हम कहते हैं केवल कृष्ण की प्रसन्नता के लिये, कृष्ण की भक्ति प्रचार करने के लिये। तो ऐसे धन ऐश्वर्य के बीच में रहते हुए भी अनासक्त होते हैं ।

भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि भक्त जन इस जगत में लोग रहते हैं लेकिन विरक्त होते हैं कैसे ? पद्म पत्र जैसे, पद्म पत्र तो पानी से उद्घ्रृत होते हैं लेकिन पानी के ऊपर रहते हैं, और अगर ऊपर से बारिश से पानी पद्म पत्र पर गिर जाता है, तो पानी अपने आप उनके ऊपर से गिर जाता है, क्योंकि वो पद्म पत्र तो जल में है लेकिन वो जल का स्पर्श नहीं करते, संबंध नहीं है पानी के साथ। ऐसे ही साधुजन इस भौतिक जगत में रहते हैं, और भौतिक जगत में जो है वो सब चीज इस्तेमाल करते हैं लेकिन वह खुद के भौतिक सुख के लिये नहीं करते हैं, क्योंकि साधुजन की कोई रूचि नहीं होती है इस भौतिक सुख को भोगने की । साधुजन का एक ही उद्देश्य है भगवान कृष्ण, भगवान जगन्नाथ की सेवा करना । वो जानते हैं कि जग में जो भी कुछ है वह भगवान जगन्नाथ, भगवान कृष्ण की संपत्ति है। सब कुछ जो जगत में है वह भगवान की सेवा में लगाना चाहिये ।

तो ये युक्त वैराग्य है, वैराग्य का मतलब अनासक्त होना। तो शुद्ध भक्त जो कि भगवान कृष्ण का प्रचार करते हैं, वे विरक्त होते हैं, और इतने विरक्त होते हैं कि उनको जंगल और पहाड़ जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। धन और ऐश्वर्य के बीच रहते हुए भी इनके मन विचलित नहीं होते हैं, और न ही आकर्षण पैदा होता है भोग विलास के प्रति। ये सब गृहण करते हैं केवल भगवान श्री कृष्ण की भक्ति का प्रचार करने के लिये । यही युक्त वैराग्य होता है।

तो उपाय तो सबसे महत्वपूर्ण नहीं है उद्देश्य सबसे महत्वपूर्ण है। सर्वप्रथम उद्देश्य निश्चित करना चाहिये, फ़िर क्या क्या उपाय से उद्देश्य साधित होगा फ़िर उसका निर्णय करना चाहिये। तो उद्देश्य है कृष्ण भक्ति प्रचार करना । तो क्या उपाय है कृष्ण भक्ति प्रचार करने का, तो जंगल में गुफ़ा में बैठकर तो कृष्ण भक्ति प्रचार नहीं होगा । आधुनिक युग में आधुनिक विधि के अनुसार कृष्ण भक्ति प्रचार करना चाहिये । कृष्ण भक्ति प्राचीन संस्कृति है, लेकिन आधुनिक युग में आधुनिक सुविधा लेकर कृष्ण भक्ति प्रचार करना है। तो टी.वी और माईक नहीं हो तब भी कृष्ण भक्ति प्रचार होगा परंतु अगर ये सब इस्तेमाल करेंगे तो ज्यादा प्रचार कर पायेंगे । इस आधुनिक युग में उन सभी आधुनिक तकनीकों के द्वारा कृष्ण भक्ति प्रचार करना एक अच्छा उपाय है।

लोग निंदा करते हैं कि साधु हैं तो क्या प्लेन में जाते हैं, टीवी में आते हैं, तो क्षमा कीजिये उनको अगर वो कुछ अपराध करते हैं। हम देखते हैं कि ये सब चीज भगवान की सृष्टि है और जो भी सृष्टि जगत में है वह सब भगवान की सेवा में लगाना चाहिये ।और विशेषकर आजकल के जमाने में जिसमें लोगों के मन विचलित होते हैं।

श्री कृष्ण ही भगवान पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर हैं, इनकी सेवा करना मानव जीवन का उद्देश्य है। और इस कलियुग में कीर्तन और महामंत्र से कृष्ण भक्ति करना श्रेष्ठ साधना है और वो महामंत्र है “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे,  हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे”

Monday, May 10, 2010

जगत में छ: श्रेणी के लोग होते है, द्वितिय श्रेणी उनकी है, अच्छा और बुरा दोनों देखना पर थोड़ा सा बुरा दिखाई दे तो उसे बहुत बड़ा चढ़ा देना।

प्रथम श्रेणी जो दूसरों में केवल दोष देखते हैं, पढ़ने के लिये चटका लगाईये।

    बुरा भी देखना अच्छा भी देखना, लेकिन जो बुरा मिल गया तो बिल्कुल इस तरह झपट पड़ना कि अब मिल गया मिल गया। जो ढूँढ़ रहा था वो मिल गया, और उसको झपट लेना और फ़िर उसको बहुत बड़ा देना, विस्तारित कर देना।

    दक्ष के यज्ञ में देखा जाता है कि दक्ष शिवजी के प्रति इतने क्रोधित हो गये कि शिवजी उठ खड़े होकर उनको सम्मानित नहीं किये। वास्तव में शिवजी की ओर से कोई गलती नहीं थी, क्योंकि वो परमात्मा के ऊपर सत्वं विशुद्धं वसुदैव शब्दितम सैयते उनाम उपावृत: निरंतर वो परमात्मा के संपर्क में रहते हैं । जब भी हम किसी को प्रणाम करते हैं तो प्रणाम किसको कर रहे हैं, उनके ह्र्दय के अंदर स्थित परमात्मा को, तो शिवजी निरंतर परमात्मा के संपर्क में रहते हैं तो उनको प्रणाम ही कर रहे थे, लेकिन दक्ष अपनी दृष्टि से इस बात को समझ नहीं पाये। ओर उस दोष को लेकर दक्ष ने शिवजी की ऐसी निंदा आरंभ कर दी कि बस पूछो मत। ओर निंदा करने से पूर्व दक्ष ने अपनी निंदा का भूमिका भी बताई कि अभी मैं जो कुछ शब्द कहने जा रहा हूँ, ये न विचार करें कि मैं द्वेष से प्रेरित कह रहा हूँ, केवल मेरे कुछ विश्लेषण हैं जो मैं बता रहा हूँ, अर्थात न केवल द्वैष था लेकिन साथ साथ वो उसका परिचय भी दे रहे थे, कि जो मैं कह रहा हूँ वह द्वेष से प्रेरित नहीं है, और फ़िर इस तरह से निंदा की लेकिन शिवजी की कोई प्रतिक्रिया नहीं रही। तो वास्तव में ये ऐसे दोष दर्शन की दृष्टि है कि थोड़ा सा कुछ दोष दिख गया तो उस दोष को पकड़कर विस्तारित कर दो, और ना ना प्रकार के अनाप शनाप शब्द दक्ष शिवजी के विषय में वर्णन करते हैं ।

    और दूसरे उदाहरण आता हैं दुर्वासा जी के आने में कुछ विलंब हो गया उनके लौटने में तो अम्बरीश महाराज ने थोड़ा सा जल प्राप्त कर लिया और अपने उस व्रत को भंग करने से दुर्वासा मुनि इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने एक महान राक्षस तैयार किया अपनी योगशक्ति से । लेकिन वर्णन आता है कि अम्बरीश महाराज की इतनी शक्ति थी दुर्वासा मुनि की भले ही योग की शक्ति थी परंतु अम्बरीश महाराज की भक्ति की शक्ति थी। और भले ही विषधर भुजंग बड़ा ही शक्तिशाली हो पर अपने विकराल विष के प्रभाव से ना ना प्रकार के लोगों को नष्ट कर सकता है। लेकिन वही विकराल भयावह विषधर भुजंग यदि किसी दावाग्नि में प्रवेश करे, तो दावाग्नि के भीतर उस भुजंग का कुछ नहीं हो सकता क्योंकि दावाग्नि की शक्ति इतनी है कि उस दावग्नि मॆं वह भुजंग या वह सर्प केवल झुलस कर ही नष्ट हो जायेगा। उसी प्रकार दुर्वासा मुनि का क्रोध एक सर्प की तरह था, और सर्प की भांति वे फ़ुफ़कार रहे थे, और अपने द्वेष के विष को अपने चारों तरफ़ फ़ैला रहे थे, लेकिन अम्बरीश महाराज के अंदर भक्ति की भावना एक दावाग्नि के तुल्य थी, और ऐसे दावाग्नि के टक्कर से वह तुरंत नष्ट होकर झुलस गये। इसलिये दुर्वासा मुनि अम्बरीश महाराज का कुछ बिगाड़ नहीं पाये।

    तो कई ऐसे लोग होते हैं, हमारे अंदर भी ये प्रवृत्ति होती है कि किसी के अंदर द्वेष की भावना होती है और थोड़े उनके अंदर कुछ दुर्गुण देख लिया तो उसको पकड़कर हम चारों तरफ़ उसके विषय में हम विज्ञापन करने लगते हैं, तो वास्तव में उस व्यक्ति के अंदर दोष तो है, लेकिन उससे अधिक हमारे ह्र्दय के अंदर द्वेष है, कि उस दोष को देखकर हम प्रसन्न होते हैं और उसका विज्ञापन करते हैं।

    यह प्रकृति का नियम है जब हम दोष दर्शन करते हैं और दूसरे का दोष देखते हैं और उसका विज्ञापन करते हैं, तो समय की बात है कि वही दोष हमारे ह्रदय में भी प्रवेश करते हैं, या हो सकता है कि वह दोष हमारे अंदर ही हो इसलिये वह दोष हमें दिखते हैं, और उसका प्रभाव हम पर होने लगता है। इसलिये वास्तव में यह बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है, और हमारी भक्ति के जीवन के लिये बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है।

Friday, April 23, 2010

जगत में छ: श्रेणी के लोग होते हैं, प्रथम श्रेणी उनकी है, अर्थात सबसे निकृष्ट कहा जा सकता है, कि वह जो दूसरों के केवल दोष ही देखें।



श्रीमद्भागवतम स्कन्ध ४ श्लोक १२

दोषान परेशान हि गुणेषु साधवो
गृहन्नति केचित न भवाद्रिशु द्विज
गुणांस च फ़लगुन बहुलि परिष्णवो
महत्तमास तेषु अविदत्त भवान अगम ।

दोषान – दोष, परेशां – दूसरों के, हि – लिये, गुणेषु – गुण के अंदर, साधवा: - साधु, गृहन्नति – ढूँढ़ना, केचित – कोई, न – नहीं, भवाद्रिश: - जैसे तुम, द्विज – दो बार जन्म लेने वाला, गुणांस – गुण, च – और, फ़लगुन – छोटा, बहुलि करिष्णवो – बहुत बड़ा, महत्तमास – महान लोग, तेषु – उनके साथ, अविदत्त – ढूँढना, भवान – तुम, अगम - गलती ।

यह बहुत महत्वपूर्ण श्लोक है, जिसमें सती अपने पिता दक्ष की कठोर शब्दों से निंदा कर रही है, और कह रही है कि किस प्रकार दक्ष शिवजी में दोषदर्शन कर रहे हैं और यह उचित नहीं है।

इस जगत में छ: श्रेणी के लोग होते हैं, और इन छ: श्रेणी के लोगों में दर्शन या इस जगत या जगत के लोगों को देखने का रवैया भिन्न होता है।
प्रथम श्रेणी उनकी है, प्रथम अर्थात सबसे निकृष्ट कहा जा सकता है। कि वह जो दूसरों के केवल दोष ही देखे।
दूसरों के अंदर केवल दोषदर्शन करना। तो वर्णन आता है कि महाभारत में दुर्योधन इसके सुन्दर उदाहरण हैं। क्योंकि दुर्योधन को दूसरों में केवल दोष ही दिखते थे, स्वयं में सदगुण और द्रोणाचार्य ने जब दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनों को भेजा कि राज्य में देखकर आओ कि कौन लोग महान हैं और कौन लोग निकृष्ट हैं, तो दुर्योधन ने विचार किया कि पहले द्रोणाचार्य को इस तरह से भेजने की आवश्यकता ही क्या है, देखकर ही उनको समझना चाहिये कि मैं कौन हूँ, लेकिन फ़िर भी क्योंकि कह रहे हैं, तो फ़िर कसर पूरी करेंगे। अर्थात जाने से पूर्व ही उन्होंने विचार किया कि कोई आवश्यकता नहीं जाने की मुझसे श्रेष्ठ दूसरा कोई है ही नहीं। और फ़िर चारों दिशाओं में भ्रमण करने के पश्चात लौटकर आये और द्रोणाचार्य जी को कहा कि पूरे राज्य में सभी मुझे दोष से ही पूर्ण दिखे। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखा जो दोष से मुक्त था, मुझे छोड़कर । तो ये दुर्योधन का दृष्टिकोण इस तरह से था । तो इसे कहते हैं दोषदर्शन की दृष्टि ।

जैसे नीति शास्त्र में वर्णन आता है – महात्मा और दुरात्मा में अंतर क्या है, दुरात्मा उसके मन वचन और कर्म में भिन्नता होती है। जो व्यक्ति मन में कुछ सोचता है, वाणी से कुछ ओर कहता है और अपनी काया से कुछ ओर करता है, वो दुरात्मा है। और महात्मा अर्थात वो जो मन में, वचन में और काया से पूरी तरह समान भाव से कार्य करता है । तो वास्तव में इस भौतिक जगत में किसी भी व्यक्ति को प्राप्त करना बहुत कठिन है, जो दोषों से मुक्त है।

और ये विषय विशेष रुप से भक्तों के लिये बहुत आवश्यक है क्योंकि हम लोग भक्ति करते हैं, शुद्ध भक्ति को प्राप्त करने के लिये। श्रेष्ठतम स्तर को और शुद्धता को प्राप्त करने का हमारा प्रयास है, और यह सुना है कि कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, दोषों से मुक्त हैं, और ये भी सुना है कि कृष्ण को प्राप्त करने के लिये भक्तों की कृपा की आवश्यकता पड़ती है। और इसलिये हम सभी भक्तों की सेवा में लगे रहते हैं, भक्तों के संग में भक्ति करते हैं। लेकिन समस्या यह है कि भक्तों के संग में भक्ति करते समय भक्तों के दोषदर्शन होते हैं। आरंभ में जब हम भक्ति में आये तब सारे भक्त महान लगे थे, लेकिन वास्तव में किसी भी संघ में आप जाओ तो सर्वप्रथम केवल सद्गुण दिखते हैं, लेकिन कुछ समय के पश्चात धीरे धीरे दुर्गुण दिखने लगते हैं, यह भद्र जीव की समस्या है । जब व्यक्ति नया नया संघ में आता है तो सबको दंडवत करता रहता है, सबको प्रणाम करता रहता है। उसको लगता है कि सब महान हैं, सब श्रेष्ठ हैं, और ये मन में विचार यदि वो दीर्घकाल तक रख सके तो उसकी श्रेष्ठता है। लेकिन दुर्भाग्यवश मन में यह भावना बनती नहीं, और कुछ समय के बाद मन में यह लगने लगता है कि मैं इस व्यक्ति को बहुत महान समझा था, लेकिन इतना महान नहीं है। जैसा पहले लगा था। देखने में मुझसे ही कुछ गलती हो गई थी। अब धीरे धीरे अज्ञान का पर्दा हट रहा है, अज्ञान का प्रकाश हो रहा है। और मैं समझ रहा हूँ कि इसकी वास्तविक औकात क्या है, पहले इनको दंडवत करता था अब केवल प्रणाम करता हूँ काफ़ी है। तो यह समस्या सबकी है प्रत्येक व्यक्ति की है, इसलिये इसे कहते हैं Seminar on overcoming fault finding.

किसी को भी देखो, कुछ भी देखो तो केवल बुरा ही दिखता है, तो इसका मूल कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने मिथ्या अहंकार के चश्मे से जगत को देखता है, हम सभी को भगवान ने एक दृष्टि प्रदान की है। लेकिन इस दृष्टि के पीछे मिथ्या अहंकार का प्रभाव है So false ego is like spectacle. और ये मिथ्या अहंकार अलग अलग रंग का बना है। किसी का नीले रंग का चश्मा है तो किसी का पीले रंग का, किसी का हरे रंग का, किसी का केसरिया रंग का । तो अलग अलग प्रकार का चशमा पहने हैं सब, और जिस रंग का चश्मा पहनेंगे दुनिया आपको वैसी ही दिखेगी| लोग मूल तत्व को छोड़कर छोटी छोटी बात को लेकर झगड़ा करना शुरु कर देते हैं। तो सिद्धांत को छोड़कर यदि बाकी अन्य बातों के विषय में हम विचार करें तो भक्ति पीछे छूट जायेगी।

एक उदाहरण देखिये २ सेव और ३ सेव कितना होता है ५ सेव, और दूसरा अध्यापक उनको शिक्षा देता है ४ केला और १ केला ५ केला होता है, अभी दोनों गणित सिखा रहे हैं, दोनों में कोई अंतर है, तो एक कहेगा नहीं कोई अंतर नहीं है, दोनों बराबर सिखा रहे हैं, दूसरा कहेगा नहीं बहुत बड़ा अंतर है ये तो सेव है, और ये तो केला है। तो केला और सेव को लेकर झगड़ा शुरु !!! और मूल सिद्धांत जो गणित सीखना है वो रह गया । तो उसी प्रकार भक्ति में भी कई बार मूल सिद्धांत को छोड़कर किस प्रकार से उस गणित को समझाना है इस मसले को लेकर मतभेद उत्पन्न हो जाता है। तो इसीलिये सर्वप्रथम दृष्टि यह है कि दूसरों में दोष देखना ।

यहाँ तक कि लोग भगवान को भी नहीं छोड़ते और वर्णन आता है कि जब भगवान इस जगत पर अवतरित हुए और नाना प्रकार की लीलाएँ उन्होंने की तो भी कई ऐसे लोग मिले जो केवल भगवान की निंदा ही किये, और उसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं "शिशुपाल", शिशुपाल भगवान के भाई थे एक प्रकार से दूर के रिश्ते में । लेकिन शिशुपाल का भगवान कृष्ण के प्रति इतना द्वेष था कि जिस समय शिशुपाल का जन्म हुआ । सामान्य बालक जन्म के पश्चात आ, ऊ इस तरह से रोता है, शिशुपाल जन्म के पश्चात सबसे पहले जो शब्द उनके मुख से निकले कृष्ण के प्रति गाली, इतना द्वेष उनके ह्र्दय में कूट कूट कर भरा हुआ था। और उसके पश्चात द्वेष भी उनका ऐसा था कि जब भी कृष्ण को देखते या कृष्ण के संबंध में कुछ बात कहते कि केवल बुरे शब्द निकलते । लेकिन कृष्ण भी बड़े सहनशील थे और कृष्ण ने विशेष रुप से शिशुपाल को छूट दी थी, कि एक साथ ९९ गाली दे सकता है, सौ के ऊपर गया तो मैं उनको समाप्त कर दूँगा। तो भगवान भी कितने सहनशील हैं हम भी कभी कभी इतनी सहनशीलता नहीं दिखाते । कौन इतना सहनशील है कि तू मुझे ९९ गाली दे सकता है, ९९ गाली तक में सहन करुँगा उसके बाद नहीं, अपना तो २-४ के ऊपर ही फ़्यूज उड़ जाता है । तो सौ की तो दूर की बात है, तो विचार कर सकते हैं कि भगवान इस भौतिक जगत को बनाते हैं, भौतिक जगत को दोषों से पूर्ण बनाते हैं, लेकिन स्वयं भी जब लीला करते हैं तो ऐसा नहीं कि अलग कमरे में रहते हैं । जहाँ उन पर इस जगत के दोषों का प्रभाव नहीं पड़ता । भगवान जब जगत का निर्माण करते हैं और स्वयं अवतरित होते हैं, लीला करने आते हैं तो स्वयं भी जगत के इन दोषों में भागीदार बनते हैं। अन्यथा बैकुण्ठलोक में गोलोक में उनको कोई गाली नहीं देता। संभव ही नही, कोई ऐसा विचार करेगा तो तुरंत ही भौतिक जगत में आ जायेगा। लेकिन भगवान हम सबको प्रेरणा देने के लिये कहते हैं कि मैं भी यहाँ जगत में आकर दो चार बुरे शब्द सुनकर जाता हूँ, तो आप लोगों को क्या समस्या है । जगत इस तरह से निर्माण किया गया है कि यहाँ पर चाहे कुछ भी करो चाहे आप पूर्ण प्रुरुषोत्तम आनंदगणचिद्गन षड़्गुण संपन्न षड़्श्वेरेशाली भगवान भी क्यों न हों, तो दो चार बुरे शब्द सुनने ही पड़ते हैं । कुछ लोग ऐसे मिलेंगे ही जिनके साथ आपका कभी बनेगा ही नहीं। केवल दोष देखना यह सबसे निकृष्ट स्तर है।


इसे मैं आगे की पाँच कड़ियों में प्रकाशित करुँगा और आप यहाँ से सीधे इन सद्वचनों को सुन भी सकते हैं, ये केवल मैं टाईप कर रहा हूँ, मेरा प्रयास है इस ब्लॉग से ज्यादा से ज्यादा ज्ञान हिन्दी में अंतर्जाल पर दे सकूँ, मेरा एक छोटा सा प्रयास मात्र है।

Friday, March 12, 2010

"पूतना वध" भागवतम - दशम स्कन्ध, भाग छ:

"पूतना वध" भागवतम - दशम स्कन्ध, भाग छ:

श्लोक नं ३५

भागवतम दशम स्कन्ध, भाग छ:

"पूतना लोग बालघ्नि राक्षसी रुधिरासना
जिघमसयपि हरये स्तनम दत्तवापा सबगति"

तात्पर्य - कृष्ण कृपामूर्ति अभयचरणार्विन्द भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद द्वारा 

पूतना सदैव बालकों के खून की प्यासी रहती थी, और इसी अभिलाषा से वो कृष्ण को मारने आयी थी, किंतु कृष्ण को स्तनपान कराने से उसे सर्वोच्च पद प्राप्त हुआ, तो भला उनके विषय में क्या कहा जाये, जो माताओं के रुप में कृष्ण के रुप में सहज भक्ति तथा स्नेह था अर्जुना ने अपना स्तनपान करवाया, या कोई अत्यन्त कोई प्रिय वस्तु भेंट की जैसे कि माताएँ करती रहती हैं।

तात्पर्य - पूतना को कृष्ण से कोई स्नेह नहीं था, प्रत्युत: उनसे ईर्ष्या करती थी और उन्हें मार डालना चाहती थी। फ़िर भी जाने अनजाने उसने उन्हें स्तनपान करवाकर परमगति प्राप्त की। किंतु वात्सल्य प्रेम में अनुरक्त भक्तों की भेंट अत्यन्त निष्ठायुक्त होती है, माता अपने पुत्र को स्नेह तथा प्रेम से कोई वस्तु भेंट करना चाहती है तो उसमें ईर्ष्या का लेष भी नहीं रहता । अत: हम यहाँ तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं यदि पूतना उपेक्षा भाव से ईर्ष्या भाव से स्तनपान कराकर आध्यात्मिक जीवन का ऐसा सर्वोच्च पद प्राप्त कर सकती है तो भला माता यशोदा तथा अन्य गोपियों के विषय में क्या कहा जाये जिन्होंने कृष्ण की सेवा लाड़ प्यार के साथ की । और कृष्ण की तुष्टि के लिये हर वस्तु भेंट की, गोपियों को स्वत: परम पद प्राप्त हुआ । इसलिये श्री चैतन्य महाप्रभू ने वात्सल्य प्रेम या माधुर्य प्रेम में गोपियों के स्नेह को ही जीवन के सर्वोच्च सिद्धी बतलाई । 

तो ये दशम स्कन्ध श्रीमदभागवत में पूतना वध बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रसंग है। इस श्लोक के माध्यम से शुकदेव गोस्वामी जी इस बात को इंगित कर रहे हैं, कि भगवान श्री कृष्ण कितने कृपालु हैं, और भगवान श्रीकृष्ण के कृपा माधुर्य का विस्तृत वर्णन इस प्रसंग के माध्यम से विस्तारित हो रहा है। ध्यान देने वाली बात है माँ के गर्भ से जन्म लेने के पश्चात शुकदेव गोस्वामी स्वयं एक ज्ञानी थे और ब्रह्म्म के स्तर को पूरी तरह प्राप्त कर चुके थे । तो उनके पिता व्यासदेवजी की इच्छा हुई कि उनको हम भगवान श्रीकृष्ण के सर्वोच्च भक्तिमय भावों का एक आस्वादन करायें और इस उद्देश्य से उन्होंने अपने कुछ निकट के प्रेमी शिष्यों को इस सेवा में लगा दिया कि वन के भीतर शुकदेव गोस्वामी जहाँ विचरण कर रहे थे स्वच्छन्द उनके समीपवर्ती जाकर उनको कुछ भागवत के श्लोकों का श्रवण करायें। तो जब व्यासदेवजी के कुछ शिष्य जाकर दो श्लोकों का वर्णन किये तो शुकदेव गोस्वमी उन श्लोकों को सुनकर भावविभोर हो गये। श्रीमद्भागवद के प्रति ऐसी अगाध प्रीति और निष्ठा उनके ह्र्दय के भीतर उत्प्रेक्षित हुई कि अन्त में वो पाँच प्रेक्षित के समक्ष पूरे विश्व के सामने प्रथम बार प्रकाशित हो रही है और इन श्लोकों के माध्यम से शुकदेव गोस्वामी जैसे महान संत के ह्र्दय के शुद्ध भक्ति के समुद्र के तरंगों के लहर का एक अंशमात्र हम दर्शन कर पा रहे हैं ।

तो देखिये भगवान श्रीकृष्ण की लीलायें इतनी अपार हैं, इतनी महान हैं, इतनी श्रेष्ठ हैं कि शुकदेव गोस्वामी ऐसे महान लीला में पूरी तरह निमग्न हो गये । और वास्तव में व्यासदेवजी के शिष्यों ने मुख्य रुप से दो श्लोकों का निरुपण किया। एक में भगवान श्रीकृष्ण के सौंदर्य माधुर्य का वर्णन था और उसमे वरहा पीड़म वाला जो प्रसिद्ध श्लोक है इसमें भगवान श्रीकृष्ण जिनका बड़ा अति रमणीय रुप, ज्ञानगन चिदगन आनन्दगन सर से निख तक जो पूरी तरह चिन्मय तत्व के लिये रचे हुए हैं भगवान उनका वर्णन इस श्लोक के माध्यम से किया और दूसरा श्लोक का वर्णन किया वो है "अहो बकियम स्तन कालकूटम" अर्थात इस श्लोक में वर्णन आता है कि किस तरह पूतना भगवान श्रीकृष्ण का विध्वंस करने की अभिलाषा से अपने स्तनों पर महाभयंकर महाविषैला कालकूट विष धारण करकर प्रकट हुई। 

"जिघांसया" अर्थात इस श्लोक में भी यहाँ पर शब्द आ रहा है "जिघांसया" तो वही श्लोक जब उद्धव जी कह रहे थे "जिघांसया" अर्थात पूरी तरह पूर्वनिर्धारित निष्कर्ष से कि इनकी हत्या करनी है, ऐसा नहीं कि अकस्मात, वो भगवान श्रीकृष्ण की हत्या करने वहाँ प्रकट हो गयी । पूर्वनिर्धारित योजना बनाकर भगवान श्रीकृष्ण की हत्या करने निर्मम रुप से मन में नाना प्रकार की योजनाएँ धारण करके जो आयी थी अर्थात अतिपापी । "जिघांसयापि असाध्वि" अर्थात पूरी तरह कपटी महाप्रभू तो कहते हैं पतितपावन कपटपावन नहीं महाप्रभू ने थोड़ा कपट दिखाने के लिये छोड़ा । तो पूतना यहाँ पर कपटी बनकर आयी थी  अर्थात वो केवल एक भक्त का भॆष धारण करकर आयी थी । ब्रजवासी उनको महान वैष्णव मान रहे थे । वैष्णव तो दूर की बात वैकुण्ठ की लक्ष्मी यहाँ प्रकट हो गई ऐसा मान रहे थे तो अर्थात जो कापट्य का प्रदर्शन करके और भगवान श्रीकृष्ण का विध्वंस करने की अभिलाषा को मन में पालकर जो वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण की हत्या करने का प्रयास कीं। "लेवं गतिम धात्रि उचितम ततोन्य कमवादयालम" ऐसी कपटी पापिनी पूतना को जगह दी भगवान श्रीकृष्ण ने, वो भी भगवद धाम में । तो जब शुकदेव गोस्वामी ने प्रथम बार इस श्लोक को सुना तो उनके मन में बड़ी जिज्ञासा हुई कि ये कौन व्यक्ति हैं भगवान श्रीकृष्ण, जो इतने अतीक रमणीक सुंदर आकर्षक हैं लेकिन साथ-साथ उनके ह्र्दय में कृपा का इतना अपार समुद्र है कि कोई भी व्यक्ति चाहे किसी भी भाव में उनके निकट जाकर उनके प्रति संबंध स्थापित करने का प्रयास करे वो भगवन वो श्रीकृष्ण अपने आप को सर्वस्व समर्पित कर देते हैं ऐसे शरणागत वत्सल भगवान, ऐसे महान भगवान के प्रति मुझे अवश्य अपने भावों को व्यक्त करना चाहिये और ये विचार करके शुकदेव गोस्वामी ने श्रीमदभागवत का अध्ययन आरम्भ किया ।

तो इसलिये ये पूतना का जो प्रसंग है बड़ा महत्वपूर्ण प्रसंग है, क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टि से इस प्रसंग का संक्षिप्त वर्णन सुनकर शुकदेव गोस्वामी भक्त बने अर्थात वो ज्ञान के स्तर से उठकर भक्त के स्तर पर आ गये, तो इसलिये कोई सामान्य लीला नहीं है और हम देखते हैं कि कोई भी प्रसंग या कोई भी हादसा या कोई भी ऐसा विवरण जिसके माध्यम से हम लोग भक्त बनते हैं उसका हमारे ह्र्दय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है और उसकी स्मृतियाँ हम दीर्घकाल तक लेकर चलते हैं उसी प्रकार शुकदेव गोस्वामी को भी आरम्भ में ये "पूतना वध" का लीला इतना आकर्षक लगा क्योंकि इसके माध्यम से वो भगवान श्रीकृष्ण के ह्र्दय को समझ गये । कि भगवान श्रीकृष्ण कितने कृपालु हैं, भगवान श्रीकृष्ण कितने दयालु हैं

वास्तव में प्रेम का एक लक्षण ही होता है कि बिना व्यक्ति की योग्यता अयोग्यता इत्यादि को मानकर हम उनके प्रति अपने पूरे भाव को व्यक्त कर पायें और अपने आप को उनके प्रति समर्पित कर पायें । और प्रत्येक जीव इस भौतिक जगत में कोटि कोटि जन्मों से ऐसे ही संबंधों की लालसा से भ्रमण कर रहा है । नाना प्रकार के जीवों के साथ हम संबंध स्थापित करने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं ।

लेकिन हमारे नाना प्रयास अब तक विफ़ल हुए क्योंकि भौतिकजगत में अभी तक कोई भी अणुतत्व वाला जीवात्मा के अंदर इतनी शक्ति नहीं कि वो अन्य जीवों के प्रति ऐसी अपरम्पार कृपा का प्रदर्शन कर सके । इसलिये कोई भी संबंध आरम्भ में बड़ा रोचक होता है लेकिन कुछ समय के बाद हम लोग परेशान हो जाते हैं और नाना प्रकार की समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं । तो इसलिये भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीला माधुर्य के द्वारा सभी जीवों के समक्ष ये विज्ञापन करते हैं कि अरे जीवों कहाँ दर दर भटकते फ़िरते हो संबंध स्थापित करना है तो मैं आपके सामने खड़ा हूँ । मुझे भूलकर कहाँ यहाँ वहाँ भागे चले जा रहे हो । अगर किसी के प्रति संबंध स्थापित करना है तो मेरे साथ संबंध स्थापित करो। किसी के प्रति प्रेम व्यक्त करना है तो मेरे प्रति व्यक्त करो तो इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण हम सभी को बहुत करुणा के ह्र्दय से युक्त पुकार रहे हैं, आह्वान कर रहे हैं और ये निवेदन कर रहे हैं कि हम उनकी ओर अपना ध्यान आकर्षित करें ।

इसलिये शुकदेव गोस्वामी विशेष रुप से ये जो पूतनावध का लीला है बहुत विस्तृत रुप से वर्णन करते हैं अन्य किसी भी राक्षस राक्षसी के वध के समय इतना विस्तृत रुप से वर्णन शुकदेव गोस्वामी ने नहीं किया लेकिन जब पूतना का जब वध होता है तो उनके एक एक शरीर के अंग का ऐसा वर्णन करते हैं जैसे कोई राधा रानी या भगवान श्रीकृष्ण के रुप का वर्णन कर रहे हों । पूतना का वध जब होता है तो इतना विस्तारित रुप से शुकदेव गोस्वामी बारबार नाना प्रकार के श्लोकों में ये वर्णन कर रहे हैं कि कैसे "किम पुनह श्रद्धाया भक्त्या कृष्न्या प्रियातमाम यच्चान प्रियातमाम किम नु राक्षसा तन-मतारो यथा।"

किम नो मतलब कैसे विस्मित हो रहे हैं पहले तो सुना ही था लेकिन अब वर्णन करने के बाद भी और विस्मित हो रहे हैं कि कैसे हो सकता है अगर पार्लियामेंट के ऊपर आक्रमण करने के लिये कुछ आतंकवादी गये और आजकल न्यूजपेपर में इसकी चर्चा हो ही रही है, कि कुछ समय पहले एक आतंकवादी पार्लियामेंट पर बम फ़ेंकने गया तो जब बम उसने फ़ेंक दिया तो उससे कुछ हुआ नहीं और उसके ऊपर केस चल गया और अभी उनको मृत्यु दण्ड मिल गया है तो सब जगह चर्चा हो रही है कि क्या उनको क्षमा कर देना चाहिये या न कर देना चाहिये तो अभी सब कुछ राष्ट्रपति के ऊपर है और पूरे भारतभर में इसकी चर्चा हो रही है, सब लो विचार कर रहे हैं कि इनको क्षमा करना चाहिये नहीं करना चाहिये। तो विचार कीजिये अगर कोई पार्लियामेंट पर इस तरह आतंकवादी बम फ़ेंकने जाये और जब उसका प्रयास विफ़ल हो जाये तो सरकार विचार करे कि आपने पार्लियामेंट में जाकर सारे जितने हमारे नेता थे सबकी हत्या करने का प्रयास किया बड़ा अच्छा प्रयास था आपका इसलिये आपको प्रधानमंत्री बना देंगे । अगर सोचिये कोई आतंकवादी के ऐसे प्रयास के उपरांत उसको प्रधानमंत्री का पद दे दिया जाये तो ऐसे न्यायशैली के विषय में क्या कहा जायेगा। लोग विचार करेंगे ये क्या अंध्रेर नगरी चौपट राजा है क्या यहाँ पर कौन से न्याय चल रहे हैं । अगर जो बम से आक्रमण करके कोई व्यक्ति उसके उपरांत उसको प्रधानमंत्री का पद दे दिया जाये  तो नियमित रुप से जो टैक्स भर रहे हैं उनको क्या मिलेगा । उनको देने के लिये सरकार के पास है ही क्या । 

और ये प्रश्न ब्रह्मा जी को बड़ा परेशान कर रहा था। ब्रह्माजी भी बेचारे बहुत विचार करते थे करे तो क्या करें चार सिर थे उनके। एक सर संभालना मुश्किल होता है हम लोगों को, ब्रह्माजी के तो चार चार हैं । तो ब्रह्माजी ऊपर से सब लीला देखते रहते थे । देखते क्या रहते थे वो तो सभी इंद्रियों के माध्यम से सारे देवतागण अलग अलग रसों का आस्वादन करते थे। तो ब्रह्माजी देख रहे हैं कि सर्वप्रथम पूतना विष धारण करके आयी भगवान कृष्ण को हत्या करने के प्रयास में माँ का पद दे दिया । 

ब्रह्माजी का एक सिर घबरा गया घूमने लगा फ़िर कुछ समय बाद देखा पूतना का भाई आया बकासुर और फ़िर उसकी हत्या हो गई उसको मुक्ति मिल गई दूसरा सिर घूमने लगा फ़िर तीसरा भाई आया परिवार का तीसरा सदस्य अघासुर और उसने अपने मुख के अंदर सारे गोपों को हत्या करने का प्रयास किया फ़िर कृष्ण प्रवेश किये और पूरे विश्व पूरे जगत तैंतीस कोटि देवताओं के नेत्रों के समक्ष उनकी आत्मा सीधी भगवान कृष्ण के अंदर विलीन हो गई और ब्रह्माजी के बाकी दोनों सर घबरा गये ।

ये क्या चल रहा है ये, ये पूरा परिवार दो भाई और एक बहन भगवान कृष्ण की हत्या करने में लगे हुए हैं और हत्या करने के प्रयास में विफ़ल होने के बाद भी इनके पूरे परिवार को मुक्ति मिल गई बोले कौन है ये भगवान कृष्ण और ब्रह्माजी इतने घबरा गये चार सिरों ने एक दूसरे के साथ कन्सलटेशन किया एक सिर ने दूसरे से पूछा कि "समझा क्या" बोले नहीं समझा, तुझे समझा बोले मुझे भी नहीं समझा। चलो अब वृन्दावन में जाकर अब कुछ करना ही होगा । तो उसके बाद तुरन्त ब्रह्माजी ने निश्चय किया अब कृष्ण को समझने के लिये हमको नीचे उतरना पड़ेगा। तो फ़िर इसके पश्चात ब्रह्माजी ब्रह्मविमोहन लीला में फ़ँस गये, क्योंकि वे भगवान कृष्ण की कृपा को अपनी तर्क शक्ति से समझने का प्रयास कर रहे थे । 

तो भगवान कृष्ण की कृपा है वो हमारी तर्कशक्ति के अधीन नहीं है जैसे हमने अभी एक उदाहरण देखा कि आतंकवादी को समाज को आतंकित करने के प्रयास के बदले में प्रधानमंत्री का पद दे दें तो लोग सरकार को पकड़ कर नीचे गिरा दें । बोलेंगे कि क्या सरकार है ये, तो ब्रह्माजी भी बेचारे अपने न्याय और बुद्धि के अनुसार ही तर्क कर रहे थे कि मैंने जो ब्रह्मांड का निर्माण किया है तैंतीस कोटि देवता मेरे अधीन काम कर रहे हैं और नाना प्रकार के नियम वगैरह बनाये हैं लेकिन बीच बीच में ये क्या चल रहा है। वो भूल गये कि उनके ही स्वामी आकर उनके ही बनाये गये नियमों में हस्तक्षेप करके अपने कृपा माधुर्य का प्रदर्शन कर रहे हैं और वे किसी भद्र जीव या इस भौतिक जगत के मुक्त जीव के तर्कशक्ति के अधीन नहीं हो सकता। 

तो इसलिये जब पूतना का उद्धार हो गया तो ब्रह्माजी ब्रह्मविमोहन लीला के समय भी ऐसा नहीं कि अपनी गलती पूरी तरह स्वीकार कर रहे हैं वो कह रहे हैं "चेतो विश्व फ़लापदतरम पुत्रापयन मोहयति त्वदधामार्थ स्वीतृ प्रयातमतनया प्राणाशयश यत्वतकृते" वो कह रहे हैं भगवन जो स्त्री आपके भक्त का रुप धारण करके आपकी हत्या करने का प्रयास की, उसको आपने माँ का स्थान दे दिया तो मैं विचार कर रहा हूँ कि आपके स्टॉक में, आपके गोदाम में जो कोई भी आशीष या आशीर्वाद देने के लिये जो कोई भी वस्तु रखी हुई है "त्वतधामार्थ सुहित प्रयातमतनया प्राणाशयश" ये ब्रजवासी को देने लायक आपके पास रखा ही क्या है । जिन ब्रजवासियों ने आपके लिये त्वदधाम अपना धाम अपना घर आपके लिये समर्पित कर दिया। अर्थ धन आपको दे दिया प्रिय जो उनके प्रियतम निकटतम सगे संबंधी थे वो सब आपको समर्पित कर दिया आत्म अपना शरीर आपके लिये समर्पित कर दिया।

तनया अपने सारे बच्चे इत्यादि सब आपकी लीलाओं के पूरी तरह समर्पित कर दिया प्राण अपना सारा प्राण आशा अपनी सारी इच्छाएँ सारे ब्रजवासियों ने अपना तन मन धन सर्वस्व समर्पित कर दिया आपके चरणों में हे कृष्ण ! तो हम विचार कर रहे हैं कि आपके पास इन ब्रजवासियों को देने के लिये बचा ही क्या है यदि उस पूतना को आपने इस प्रयास के बदले में माँ का स्थान दे दिया तो इसलिये पूतना की लीला बड़ी आशाजनक लीला है, और ब्रह्माजी इस बात को समझ नहीं पाये और ब्रह्मविमोहन लीला के उपरांत जो प्रार्थना में वो कह रहे हैं, "भगवन इसलिये मुझे पूरा दोष नहीं देना चाहिये" अगर बार बार इस तरह कॄपा का प्रदर्शन होता रहे तो कोई भी सामान्य व्यक्ति भ्रमित ही हो जायेगा

लेकिन कलियुग के जीवों के लिये बहुत आशाजनक ये प्रसंग है क्योंकि पूतना दो प्रकार के भावों के साथ भगवान कृष्ण की हत्या करने आयी। एक तो पूतना ने अपने मन में भाव धारण किया था भगवान कृष्ण की हत्या करने का अर्थात पूरी तरह नेगेटिव एटीट्यूड कोई उनके अंदर भक्ति का भाव नहीं था केवल हत्या का भाव था। लेकिन भगवान कृष्ण ने क्या देखा चाहे भाव कुछ भी हो मेरे साथ संबंध स्थापित करने के लिये आई है और कुछ नहीं। तो इसीलिये हम सभी को किसी न किसी के साथ संबंध तो स्थापित करना ही है।

"ददाति प्रतिग्रहणाति गुह्यमाख्याति प्रेक्षति ...चैव" चाहे आप हरे कृष्ण जपो नहीं जपो ये छ: बातें तो हम इस जगत में किसी के साथ करेंगे ही तो इसलिये हमको जब छ: करना ही है तब जाकर संबंध स्थापित होता है उसको संग कहते हैं। तो कृष्ण दशम स्कंध में हम सभी को ये विज्ञापन कर रहे हैं कि आप लोगों को संबंध स्थापित करना ही है तो मेरे साथ संबंध स्थापित करो। "ददाति प्रतिग्रहणाति" देना ही है तो मुझे कुछ देकर देखो और विश्वास नहीं होता तो पूतना की लीला का वर्णन सुनो वो देने आयी थी हमको पूरी तरह से विष। तो भाव था उनका हत्या का और वस्तु देने आयी थी विष और ये दोनों बातों के साथ भगवान कृष्ण ने दे दिया उनको माँ का स्थान। तो इसलिये सोचिये इस जगत में कोई व्यक्ति किसी के साथ संबंध स्थापित करना चाहता है तो कोई वस्तु देता है। कोई भाव उसके मन में होता है कि मैं प्रेम का संबंध स्थापित करुँ। मन के अंदर होती है वो व्यक्त करता है, "भू..भोजयते" कोई भोजन देना और भोजन स्वीकार करना इन छ: बातों के माध्यम से प्रीति का लक्षण प्रदर्शित होता है । 

तो इसलिये यहाँ पर पूतना के वध के माध्यम से भगवान कह रहे हैं कि कोई व्यक्ति इतना ही भाव लेकर मेरे पास आ जाये कि मेरी हत्या करो, उसको मैंने माँ का स्थान दे दिया तो आप थोड़ा बहुत भक्ति का भाव लेकर, यदि मेरे समक्ष आकर भक्ति करने का प्रयास करोगे तो सोचिये आपको क्या क्या नहीं मिलेगा। क्या कुछ प्राप्त नहीं होगा यदि प्रतिदिन नियमित रुप से हम सोलह माला करें, नाम जप करें, भक्ति करने का प्रयास करें। तो सोचिये क्या क्या लाभ हम लोगों को प्राप्त नहीं होगा। और जो कुछ भी घर में वस्तु है, सामग्री है वो भगवान की सेवा में यदि लगा दें तो सोचिये भगवान हमारे साथ किस तरह का आदान प्रदान करेंगे । तो ये मुख्य भाव है यहाँ इस पूतना लीला का, कि हम लोगों को ये विचार नहीं करना चाहिये कि मैं तो भक्ति में बहुत अधम हूँ, निकृष्ट हूँ मेरी कोई योग्यता नहीं, मैं कैसे भक्ति करुँगा मैं क्या करुँगा । अरे मुझसे तो कुछ होता ही नहीं तो नाना प्रकार के निराशाजनक भाव लेकर हम लोग हतोत्साहित हो जाते हैं । इसलिये भगवान यहाँ पर आशा दे रहे हैं, "चिंता मत करो" येन केन प्रकारेण आप भक्ति करते रहो तो देखो कितना कुछ लाभ आपको प्राप्त होगा

इसलिये पूतना की लीला जो है सभी राक्षसों के वध में, सबसे पहले जो असुर का वध किया भगवान कृष्ण ने वो पूतना वध है। क्योंकि पूतना वध की लीला को सुनकर हम सभी अपने मन में यह बात विचार कर लें, एक जिज्ञासा जागृत हो जाती है, पहली राक्षसी आयी भगवान कृष्ण को मारने पूतना, उसको माँ का पद मिल गया। ये सुनकर इच्छा होती है अरे और और लोगों को क्या क्या मिला अगर पहले ये राक्षसी को ये मिल गया तो और बाकी असुरों को क्या मिला । ऐसे मन में विचार उतपन्न होता है तो और सुनने की इच्छा होती है। 

इसलिये दशम स्कंध का मानो एक तरह से विज्ञापन करते हुए आरंभ में एडवर्टाइजमेंट के रुप में पूतना वध लीला सुना दिया जिससे कि लोग और तीव्रता के साथ सुनते रहें आगे की लीलाओं में। और अपने मन में भी आशा बनी रहे कि ये व्यक्ति कितने कृपालु हैं, कितने दयालु हैं कि ऐसे ऐसे लोगों को क्या क्या पद देते हैं । तो हमें अपने जीवन में ऐसे भगवान कृष्ण के साथ अवश्य संबंध स्थापित करना चाहिये। भगवान कृष्ण के साथ प्रेम करना चाहिये। अगर पूतना को यह पद दे दिया तो ब्रजवासियों को क्या पद मिलेगा । और हम लोग तो दोनों के बीच में हैं तो हम लोग को भी अवश्य कहीं न कहीं कोई न कोई पद प्राप्त हो ही जायेगा । "जश्चमूर्तमे लोके यश्च बुद्धे परमगता: तव उभवसुखमैदेते क्लिष्यन्ति अंतर्द्वजनाय"। 

श्रीमदभागवत में वर्णन आता है कि दो प्रकार के लोग होते हैं एक जो कि "मुर्तमलोके" जो इस भौतिक जगत में पूरी तरह इंद्रीयतृप्ति में लगा हुआ है और दूसरा जो परमहंस वैष्णव दोनों सुखी रहते हैं। बीच में जो लटके हुए हैं अर्थात जो साधना भक्त हैं, साधक हैं वो हमेशा परेशान रहते हैं क्योंकि जानते हैं इंद्रीयतृप्ति में कोई रस नहीं सुना है और बहुत ज्यादा सुना है, और इतने सारे श्लोक सुने हैं और इतनी कथाएँ को बैठकर श्रवण किये हैं। वो जानते हैं कि यह नहीं करना चाहिये और दूसरा अभी परमहंस के स्तर पर नहीं है । इसलिये विषय भोग के प्रति कुछ इच्छा भी है इसीलिये पूरे बल के साथ उनको अपने आपको रोकना पड़ता है और इसलिये जो बीच के स्तर पर रहते हैं वो हमेशा परेशान रहते हैं

ऐसे कॉलेजों में भी देखा जाता है दो प्रकार के लोग परीक्षा के पहले प्रसन्न रहते हैं एक जो टॉपर होता है जिसने तीन चार बार रिवीजन कर लिया वो परीक्षा के पहले दिन अलग अलग कमरों में घूमता रहता है सबको आशीर्वाद देते हुए, अपना संग देते हुए बोले आओ, अरे ये क्या है ये तो कुछ भी नहीं, इसमें तो कुछ नहीं रखा है अरे ये तो मैंने तीन बार कर लिया चार बार कर लिया बाकी लोग आश्चर्यचकित हो जाते कि अरे बाप रे हम लोगों का क्या होगा। लेकिन वो मय प्रसन्नचित्त मुख के साथ घूमता रहता है इतनी बड़ी मुस्कान रहती है । और उसके नोट के झेरोक्स सब जगह जाते रहते हैं जैसे आचार्य की टीकाएँ हैं, वो अपनी टीकाओं को सबमें बाँटता रहता है । और दूसरा सुखी व्यक्ति होता है जो आज तक कभी क्लास में गया ही नहीं, वो भी सुखी घूमता रहता है सबके पास और कहता है कि अरे क्या व्यर्थ पढ़ रहे हो, हाँ, मैं करता नहीं हूँ सब भगवान करता है। अगर उनकी इच्छा हुई तो पास होंगे, पिछले चार साल से उनकी इच्छा नहीं हुई इसलिये मैं अभी भी यहाँ हूँ। और उनका जीवन में फ़िलॉसफ़ी है कि कॉलेज में प्रवेश करना हमारा काम है, निकालना कॉलेज का काम है। हम प्रयास नहीं करेंगे । चुनौती दे देते हैं कॉलेज को, पास करके दिखाओ आप, फ़िर देखेंगे क्या होगा।

"तव उभवसुखमैदेते" दोनों सुखी रहते हैं लेकिन बीच में रहते हैं जो कुछ पढ़ाई भी किये हैं, भूलते भी रहते हैं और ऊपर टॉपर लोगों को देखते हैं, और फ़िर जो क्लास अटैंड नहीं करते हैं उनको भी देखते हैं। भ्रमित रहते हैं हमको कौन सा मार्ग अपनाना चाहिये । "क्लिष्यन्ति अंतर्द्वजनाय" एक बार बीच में कहीं जा रहा था तो एक लड़का बड़ा ही मायूस लग रहा था, मुख पर म्लानि के ऐसे चिह्न थे, चेहरा ऐसे लटका हुआ था, तो मैं उसको देखकर पूछा कि क्या बात है, बड़ा चेहरा उतरा हुआ है, ऐसे घूम रहा है जैसे किसी का देहांत हो गया। तो बोले कि क्या बतायें "कल परीक्षा है", तो मैंने कहा उसमें कौन बड़ी बात है, पूरे कॉलेज में कल सबकी परीक्षा है । लेकिन मैं क्या करुँ पढ़ता हूँ कुछ याद ही नहीं रहता बहुत प्रयास किया हूँ, इसलिये परेशान होकर मैं भटक रहा हूँ। मैं बोला कि जा कहाँ रहे हो "पिक्चर देखने जा रहा हूँ", बोले कल परीक्षा है फ़िर पिक्चर देखने क्यों जा रहे हो, बोले कुछ इंसपिरेशन मिलेगा मुझे उसमें। और फ़िर पास में कुत्ता सो रहा था और उसको देखकर बोलता है कि ये कुत्ता कितना भाग्यशाली है । मुझे लगता है कि मैं भी कुत्ता बन जाऊँ । बोले कि मन में ऐसी अभिलाषा क्यों आ गयी, कुत्ते को देखकर इतना आकर्षित क्यों हो रहे हो बोले कि "कुत्ते के जीवन में परीक्षा नहीं है, कितना सुखी है वो", तो इसीलिये जो बीच में होते हैं जो थोड़ा बहुत ज्ञान जानते हैं, लेकिन पूरा साक्षात्कार नहीं हुआ। तो उनके मन में नाना प्रकार के विवेचन चलते रहते हैं इस तरह, उस तरह, हर प्रकार से परेशान व्यक्ति घूमता है। 

लंदन में एक व्यक्ति कहीं जा रहा था लोकल ट्रेन से तो अपना सूटकेस वो निकाल रहा था तो धड़ाम से सूटकेस उसके सिर पर गिरा और जैसे ही सिर पर गिरा उसकी स्मृतिशक्ति चली गई। और वो ट्रेन के बाहर निअकला पूछते हुए "मैं कौन हूँ, मैं कौन हूँ" तभी बाहर एक डिवोटी बुक डिस्ट्रीब्यूटर घूम रहा था गीता बेचके, बोले गीता पढ़ लो जान लो "मैं कौन हूँ", अरे मैं भी यहीं खोज रहा हूँ मैं कौन हूँ । बोलता है नहीं जानते मंदिर चलो, तो मंदिर में लेकर गये । और पूरी तरह उनको डिवोटी बना दिया कुछ हफ़्तों के बाद वो किचन में काम कर रहे थे, बटाटा का बोरी निकालते निकालते गोनी सिर पर गिरा । फ़िर अचानक स्मरणशक्ति आ गई । आईने में जाकर देखा तिलक था हेयर स्टाईल बदल गया था, फ़िर मन में प्रश्न उठा "मैं कौन हूँ" । तो भक्तों ने कहा बहुत देर हो चुकी "अभी आप भगवान के दास हो" आप दर दर भटक रहे थे आपको लेकर हम आ गये अब मंदिर में सेवा करना अच्छा रहेगा। तो घर पर उन्होंने फ़ोन करके बताया कि ऐसा ऐसा हो गया हादसा अब मैं समझ गया कि वास्तव में "मैं कौन हूँ" इसलिये अब नहीं आऊँगा । 

तो इसीलिये इस बात को समझना बड़ा आवश्यक है कि कृष्ण हम सबको अवसर दे रहे हैं अपने साथ संबंध स्थापित करने का, और इसीलिये पूतना का जो लीला है, और ये दामोदर लीला है ये सब कृष्ण की तरफ़ से विज्ञापन है कि पूरा रेंज मैं आपको दे रहा हूँ, पूतना से लेकर यशोदा तक जो चाहिये चुन लो। ऐसा नहीं है कि कोई यहाँ मेरे पास आयेगा। तो विफ़ल जायेगा या हताश होकर जायेगा । कोई भी भक्त खाली हाथ नहीं जाता है जो मेरे पास आता है ऐसा कृष्ण कह रहे हैं ।  हम लोग तो बीच में ही लटके हैं न ! तो इसीलिये वो कह रहे हैं कि एक को माता का पद दिया एक के साथ माता जैसा आदान प्रदान किया । और दोनों को हमने उच्चतम पद दिया तो आप क्यों रोते हो । तो आप भी बीच में हरे कृष्णा करते रहो कहीं न कहीं बीच में लटकोगे तो इसलिये आशा की बात है और निराश होने वाली कोई बात नहीं है। 

दामोदर लीला में इसलिये कहते हैं "न इमम विरंचो" यशोदा माई को वो सौभाग्य प्राप्त हुआ जो ब्रह्माजी को प्राप्त नहीं हुआ, शिवजी को प्राप्त नहीं हुआ । जो भगवान श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर नित्य निवासिनी लक्ष्मी देवी उनको जो प्राप्त नहीं हुआ जो निरंतर भगवान श्रीकृष्ण के अंग का स्पर्श करती है उनके वक्षस्थल को निरंतर चूमती है, वो सौभाग्यिणी भगवान की अर्द्धांगनी लक्ष्मी देवी वो तो केवल भगवान श्रीकृष्ण के अंग का स्पर्श कर पाये, लेकिन यशोदा माई तो श्रीकृष्ण को अपनी भुजाओं में उठाकर उनका लालन पालन कर लीं । तो इसीलिये यशोदा माई का क्या स्थान है। इस तरह से भगवान श्रीकृष्ण इन लीलाओं के माध्यम से हम सभी को एक आशा की किरण देते हैं । संबंध स्थापित करना है तो अवश्यमेव मेरे साथ संबंध स्थापित करो। कभी निराश नहीं होगे । क्योंकि कोई व्यक्ति किसी भी भाव के साथ मेरे साथ संबंध स्थापित करने आता है, मैं उसे कभी खाली हाथ नहीं जाने देता, उसकी झोली नित्य शाश्वत सुख से मैं अवश्यमेव भर देता हूँ। भगवान श्रीकृष्ण इस बात का आश्वासन दे रहे हैं, इन लीलाओं से यह शिक्षा हमको लेनी चाहिये । तो भागवत का प्रत्येक जो लीला है, प्रत्येक जो श्लोक है, प्रत्येक कृष्ण का आदान प्रदान हमको कोई न कोई शिक्षा दे रहा है । 

हमारे दैनिक भक्ति के जीवन में, तो इसलिये हम भक्ति करते करते आज विचार करते होंगे मेरा जप ठीक नहीं हो रहा। कथा में रुचि नहीं आ रही, सेवा बहुत ज्यादा हो गई, इतनी सेवा क्यों मिल जाती है, हे भगवान की शक्ति हरे हे सर्वाकर्षक कृष्ण मुझे अपनी इतनी सेवा में क्यों लगाते हो । कभी कभी मन में यह प्रश्न उठता है । और जप करते करते कहते हैं मुझे अपनी सेवा में मत लगाओ, उनको ज्यादा लगाओ। 

जप करें रोज -
"हरे कृष्णा हरे कृष्णा, कृष्णा  कृष्णा हरे हरे, हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे"